-- शायरी --मनोज मुंतशिर के बढीया शेर( सूत्रसंचालनासाठी उपयुक्त अशी शायरी )
--01--
चाँद-परी के किस्सों से, बच्चों की भूख नहीं मिटती
शायद बाकी हों कुछ दाने, डेहरी खोलो रामसमुझ
कुछ दिन माथा न टेको, तो बड़े लोग चिढ़ जाते हैं 
ठाकुर साहब की चौखट पर, जाओ हो लो रामसमुझ
--02--
तुम्हारे शहर ने दफनाया बे-मज़ार हमें
हमारे गाँव में कहते थे जमींदार हमें
लकीरें हाथ की गिरवी हैं कारखाने में 
कहाँ ले आया है खुशियों का इन्तज़ार हमें
--03--अम्बर की हवाखोरियाँ सब भूल जायेगा,
ये चाँद उतर के जो मेरे कोठों तक आये
प्यासा हुआ तो क्या हुआ खुद्दार बहुत हूँ
दरिया से कहो चल के मेरे होंठों तक आये
लहू तलवों से टपका तब ये जाना,
कि मेरे ख्वाब हद से बढ़ गये थे
फ़लक की सैर पे निकला था कल मैं,
मेरे पैरों में तारे गड़ गये थे
--05--
मै इस दुनिया मै तुमसे मिल भी जाऊ
तो दुनिया भर की उलझन साथ होगी
मेरे सीने मै जो गहराइया
वही आकर मिलो तो बात होगी
मै सुबह का उजाला पी रहा हु
मगर ये सच तो मै भी जानता हु
नही लौटा कोई बच के जहा से
उसी जंगल मै मेरी रात होगी
मेरी बाहों का वो ताबीज मैने
तेरी बाहों को जिस दिन दे दिया था
उसी दिन से मेरा दिल जानता था
तेरे हांथों ही मेरी मात होगी
बहुत खुश था दिलो मै घर बना के
तभी बादल ने मुझसे पूछा आके
तुम्हारे सर पे अब तक छत नही है
कहा जाओगे जब बरसात होगी
बहुत रोया तुम्हे पाने की खातिर
हुआ है तब कही ये राज़ ज़ाहिर
तरस खाके अगर तुम मिल भी जाओ
तो वो रिश्ता नही खेरात होगी
----मनोज मुंतशिर----
 

 
 
 
 
 
 
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